संपादक की कलम से..
चंदौली। सावन का महीना हो और जिया ना झूम ऐसा कैसे हो सकता है। यह अलग बात है कि साल दर साल लोगों के लिए सावन के मायने अपने ढंग से बदलते जा रहे हैं। अब तो सावन की बातें मोबाइल फोन और सोशल नेटवर्किंग साइटों पर हो जाती है।
एक जमाने में सावन माह को लेकर लोगों में खासा उत्साह रहता था। बच्चे झूला झूले और मगन रहे, इसके लिए काफी पहले से ही तैयारियां हो जाती थी। झूलो के लिए नारियल की रस्सी से लेकर सनई की रस्सी बनाई जाती थी। सनी की रस्सी को खास तौर से जेठ और आषाढ़ के मांस में सनई की खेतों में फसल कर उसे रस्सी बनाई जाती थी। इसके साथ झूलों की पटली के लिए लोग काफी पहले से ही कारीगरों के हाथ लकड़ी के तथ्य दे आते थे कि भाई सावन शुरू होने से पहले इसे तैयार कर देना।
एक समय था जब सावन का महीना आते ही लोगों की जुबां पर खुद-ब-खुद सावनी गीत तैरने लगते थे। रिमझिम फुहारों में भींगना और काली घटाओं के बरसने का इंतजार लोगों को अब भी पहले जैसा है, लेकिन स्थितियां नही हैं। जिस सावन के आते ही नववधू ससुराल से मायके पहुंच जाती थी। बेटी के घर आने का इंतजार गली-मुहल्ले की सखियों के साथ मां किया करती थीं। गांव-गांव झूले दिखाई देते थे। अब वैसा सावन नही होता है। पहले गीतों से मानों पूरा गांव झूम उठता था। बढ़ते शहरीकरण ने भी झूलों की परंपरा को खत्म करने में महती भूमिका निभाई है।
आज युवा पीढ़ी झूलों का शौक पार्को व सर्कसों में लगे झूलों से पूरा कर ले रही है। तो वहीं सावन गीतों की जगह फूहड़ गीतों ने अपना स्थान बना लिया है। कभी गांव, गली, मुहल्लों में सुनाई देने वाले, हरे रामा सावन की घनघोर बदरिया छाई रे हरी…। पिया मेहंदी लिया दा मोतीझील से जाके सायकिल से ना…। बरसन लागी बदरिया रूम झूम के…। शिव शंकर चले कैलाश कि बुनियाँ पड़ने लगी…। हरे रामा सावन की घनघोर बदरिया छाई रे…। झमाझम बरसो कारी बदरिया….। जल बरसे भीजे जटाधारी जल बरसे…। बतिया माना बलम परदेसिया, हमके गढ़ाय द नथिया न…। जैसे सावन में गाए जाने वाले गीत अब कान सुनने को तरस रहे हैं। रिमझिम फुहारों के बीच पेंगे बढ़ाकर झूले पर बैठी महिलाओं के कंठ से अब कानों में मधुर रस घोलते गीत अतीत का हिस्सा बन चुके हैं। अबतो केवल रेडियो टेलीविजन तक सावन के गीत सिमट कर रह गए हैं।
अब न तो पेड़ों पर झूलों की बहार दिखती है, न-ही उस पर सावन गीतों को गाती महिलाएं, और न-ही जगह-जगह पड़ने वाले झूले ही दिखते हैं। बड़े बुजुर्गों का कहना है कि सावन के प्रारंभ से लेकर कृष्ण जन्माष्टमी तक क्षेत्र के ग्रामीण अंचलों में विशाल वृक्षों पर झूला रस्सी एवं बांस के पड़ते थे। बागों में सामूहिक झूलों की भी परंपरा थी। हेंगा पर बैठी महिलाएं, झूले के दोनों किनारों पर पेंघा मारते पुरुष या महिलाओं की टोली सब कहानी हो गई। अब न बड़े पेड़ रहे और न ही वह पुराने लोग। गांव की बुजुर्ग महिलाएं कहती हैं, कि सावन लगते ही गांव की बेटियों और महिलाओं के लिए पुरुष मुहल्लों के किसी पेड़ पर पटरे का झूला डालते और महिलाएं झूलती थीं। सावनी गीतें गाया करती थीं। अबतो यह सब गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। विलुप्त हो रहे झूलों एवं सावन की बहारों के पीछे नई एवं पुरानी पीढ़ी की अपनी अलग-अलग सोच एवं राय है।
गांव के बुजुर्गों एवं पुराने लोगों के जेहन में बीते दिनों की यादें अभी भी ताजा हैं, कि कैसे पुराने पेड़ों की मोटी शाखाओं में झूले डाले जाते थे जिसके लिए सारा गांव उमड़ पड़ता था। वे कहते हैं, कि आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं। समय की कमी की वजह से लोगों को अब यह सब भूलता जा रहा है। व्यस्तता ने इंसान की जिंदगी जीने के ढंग को ही बदल दिया है। आपाधापी की इस दौड़ में सब गौड हो चुका है। कुछ लोग झूलों एवं सावनी गीतों की विलुप्तता के पीछे मनुष्य की व्यस्ततम जिंदगी के साथ ही प्रकृति को भी उत्तरदायी मानते हुए कहते हैं, कि अब न-तो पहले जैसी मौसम में बारिश होती है और न-ही सावन के गीत सुनाई पड़ते है। उसे गाने वाले खुद समयाभाव के शिकार हैं। जिंदगी में काम का बोझ इतना बढ़ गया है कि सबके लिए सावन-भादो एक समान हो गया है। बुजुर्ग महिलाएं कहती हैं, कि इस महीने में नवविवाहिता मायके आती हैं। झूला झूलते समय कजरी गीत एवं मल्हार आदि गाए जाते हैं, लेकिन अब ऐसे आयोजन थम से गए हैं। घरों के सामने न-तो पेड़ बचे हैं, न-ही पेंग बढ़ाने के लिए स्थान हैं। इसके लिए कहीं ना कहीं हम सब जिम्मेदार हैं। लोग पुराने वृक्षों को समाप्त करने पर तुले हैं। नए लगा नहीं रहे हैं। जो लगा भी रहें वे छोटे-छोटे फलदार वृक्ष ही लगा रहे हैं। चिलबिल, पाकड़, आम, महुआ, बरगद, पीपल कोई नहीं लगा रहा। ऐसी दशा में झूलों की कल्पना करना बेमानी है। अब सावन की सिर्फ औपचारिकता ही बची है।
सावन को लेकर बदल रही युवाओं की सोच..
युवाओं का मानना है कि लोगों के मनोरंजन के अनेकों आधुनिक साधन उपलब्ध हैं। सोशल मीडिया आने के बाद की बदली स्थिति में युवाओं का इधर ध्यान ही नहीं जाता। न-ही उन्हें फिल्मी गीतों के आगे कजरी और सावनी गीत ही पसंद आते हैं। कई तो सावनी गीतों के प्रति लोगों की उदासीनता आधुनिक युग का प्रभाव मानते हैं। वैसे बुजुर्गों की चिंता भले ही उक्त विषय को लेकर हो लेकिन युवा पीढ़ी तो इससे बिलकुल बेखबर ही है। उसे तो फिल्मी गीतों की धुन पार्को और सर्कसों के झूलों से ही आनंद आ रहा है। गुम हो रही कजरी और अतीत के साक्षी बन रहे झूलो की चिंता मोबाइल युग में आखिर नई पीढ़ी को क्यों सताए।
